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आप ही नाख़ुदा रहा हूँ मैं | शाही शायरी
aap hi naKHuda raha hun main

ग़ज़ल

आप ही नाख़ुदा रहा हूँ मैं

ग़ुलाम रसूल तारिक़

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आप ही नाख़ुदा रहा हूँ मैं
आप ही डूबता रहा हूँ मैं

इश्क़ से आश्ना रहा हूँ मैं
हुस्न का मुद्दआ' रहा हूँ मैं

कहीं तेरा भरम न खुल जाए
ख़ुद को ख़ुद से छुपा रहा हूँ मैं

रौनक़-ए-दो-जहाँ मुझी से हैं
आ रहा हूँ मैं जा रहा हूँ मैं

जैसे कोई भी हक़ न हो मुझ को
यूँ तुझे देखता रहा हूँ मैं

ऐ जुनूँ अब तो रहबरी फ़रमा
हर्फ़-ए-मतलब पे आ रहा हूँ मैं

मेरे ज़िम्मे है किस क़दर मुश्किल
जागते को जगा रहा हूँ मैं

ऐ ख़ुदा तुझ से कुछ न माँग सकूँ
ये दुआ माँगता रहा हूँ मैं

गुमरही का मुझे न दे इल्ज़ाम
तुझ को पहचानता रहा हूँ मैं

ये ज़माना भी देखना था मुझे
तुझ से आँखें चुरा रहा हूँ मैं

ज़र्फ़ मेरा बुलंद है 'तारिक़'
जान कर हारता रहा हूँ मैं