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आप दिल जा कर जो ज़ख़्मी हो तो मिज़्गाँ क्या करे | शाही शायरी
aap dil ja kar jo zaKHmi ho to mizhgan kya kare

ग़ज़ल

आप दिल जा कर जो ज़ख़्मी हो तो मिज़्गाँ क्या करे

रशीद लखनवी

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आप दिल जा कर जो ज़ख़्मी हो तो मिज़्गाँ क्या करे
कोई रख दे पाँव ख़ुद ख़ार-ए-मुग़ीलाँ क्या करे

रात-दिन है सनअ'त-ए-हक़ किस तरह बदलें सनम
रू-ए-ज़ेबा क्या करे ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ क्या करे

रूह घबरा के चली देखा जो हम को मुज़्तरिब
मेज़बाँ हो जब परेशाँ रह के मेहमाँ क्या करे

दम नहीं तन से निकलता कट चुका बिल्कुल गला
सख़्त-जानी को हमारी तेग़-ए-जानाँ क्या करे

तीरा-बख़्ती से है शिकवा मुफ़लिसी से है गिला
रौशनी मुमकिन नहीं शाम-ए-ग़रीबाँ क्या करे

ज़ख़्म-ए-दिल गहरा बहुत है किस तरह टाँका लगे
याँ रफ़ू की जा नहीं तार-ए-गरेबाँ क्या करे

अपनी वहशत से है शिकवा दूसरे से क्या गिला
हम से जब बैठा न जाए कू-ए-जानाँ क्या करे