EN اردو
आप बिक जाए कोई ऐसा ख़रीदार न था | शाही शायरी
aap bik jae koi aisa KHaridar na tha

ग़ज़ल

आप बिक जाए कोई ऐसा ख़रीदार न था

असर लखनवी

;

आप बिक जाए कोई ऐसा ख़रीदार न था
मेरे यूसुफ़ के लिए मिस्र का बाज़ार न था

ख़ूँ हुआ अश्क बना और मिज़ा से टपका
दिल कि लज़्ज़त-कश-ए-रंगीनी-इंकार न था

मुब्तला हूँ तिरा जब से सनम-ए-कुफ़्र-फ़रोश
ज़ुल्फ़-ता-दोश न थी दोश पे ज़ुन्नार न था

क़िस्सा-ए-तूर कभी गोश-ए-हक़ीक़त से सुनो
शौक़-ए-दीदार ब-जुज़ हसरत-ए-दीदार न था

ग़ाज़ा-ए-चेहरा-ए-गुल नक़्श-ओ-निगार-ए-हस्ती
कोई क़तरा दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का बेकार न था

ले गई वहशत-ए-दिल कल मुझे उस आलम में
बेश-अज़-नुक़्ता जहाँ गुम्बद-ए-दव्वार न था

लज़्ज़त-ए-दर्द से वाक़िफ़ था दिल-ए-ज़ार 'असर'
वर्ना मर जाना तिरे हिज्र में दुश्वार न था