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आप अपनी ज़ात में सिमटा हुआ आलम तमाम | शाही शायरी
aap apni zat mein simTa hua aalam tamam

ग़ज़ल

आप अपनी ज़ात में सिमटा हुआ आलम तमाम

नश्तर ख़ानक़ाही

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आप अपनी ज़ात में सिमटा हुआ आलम तमाम
तुम को यूँ जाना कि था जाना हुआ आलम तमाम

कल तो बेगाना था लेकिन आज है बेगाना-तर
इक सर-ए-अंगुश्त पर रक्खा हुआ आलम तमाम

दस्तरस का ज़िक्र क्या है आगही की बात क्या
रू-ब-रू है गर्द में उड़ता हुआ आलम तमाम

गर बदल जाते तो थी दुनिया की हर शय हस्ब-ए-हाल
हम नहीं बदले तो है बदला हुआ आलम तमाम

जानता हूँ मैं अगर जागा तो ये सो जाएगा
अब हूँ ख़्वाबीदा तो है जागा हुआ आलम तमाम

उँगलियों के पेच से पेचीदा गिर्हें तह-ब-तह
नाख़ुनों के दरमियाँ उलझा हुआ आलम तमाम

इक मिरी ख़ातिर जो थे सब के दुआ-गो क्या हुए
उफ़ ये महरूमी कि है सहमा हुआ आलम तमाम