आओ कि अभी छाँव सितारों की घनी है
फिर शाम तलक दश्त-ए-ग़रीब-उल-वतनी है
कुछ भी हो मगर हुस्न की फ़ितरत में अभी तक
पाबंदी-ए-रस्म-ओ-रह-ए-ख़ातिर-शिकनी है
मत पूछ कि क्या रंग है ज़ब्त-ए-ग़म-दिल में
हर अश्क जो पीता हूँ वो हीरे की कनी है
शाइर के तख़य्युल से चराग़ों की लवों तक
हर चीज़ तिरी बज़्म में तस्वीर बनी है
तुम जिस को बहुत समझे तो इक बूँद लहू की
पूछो मिरे दामन से अक़ीक़-ए-यमनी है
मा'लूम हुआ जब कि रहा कुछ भी न दिल में
बस एक नज़र क़ीमत-ए-दुनिया-ए-दनी है
इबलीस हो सुक़रात हो सरमद हो कि मंसूर
ख़ुद-आगही हर शक्ल में गर्दन-ज़दनी है
मक़्सूद न बुलबुल है न तूती है न क़ुमरी
मतलब तो चमन वालों का नावक-फ़गनी है
आसाइश-ए-गेती है सज़ा बे-हुनरी की
आज़ुर्दगी-ए-दिल सिला-ए-ख़ुश-सुख़नी है
किन फूल फ़ज़ाओं की तवक़्क़ो' में पड़े हो
होश्यार कि याँ ज़ौक़-ए-सबा शो'ला-ज़नी है
आओ चलें उस अंजुमन-ए-बुल-हवसाँ से
आतिश-नफ़सी है न जहाँ गुल-बदनी है
'शोहरत' से कभी जान तलब कर के तो देखो
हर-चंद तही-दस्त है पर दिल का ग़नी है
ग़ज़ल
आओ कि अभी छाँव सितारों की घनी है
शोहरत बुख़ारी