आँसू की एक बूँद पलक पर जमी रही
फिर उस के बा'द सारी फ़ज़ा शबनमी रही
तर्क-ए-तअल्लुक़ात में उस की ख़ता भी थी
थोड़ी बहुत वफ़ा में इधर भी कमी रही
बादल ग़मों के कब से बरस कर चले गए
आँखों में इस सबब से अभी तक नमी रही
ऊपर से ज़ख़्म-ए-हिज्र को तो हम ने भर दिया
अंदर से कैफ़ियत तो मगर मातमी रही
यारान-ए-रफ़्ता यूँ भी बहुत तेज़-गाम थे
और हम चले तो पाँव की गर्दिश थमी रही
ग़ज़ल
आँसू की एक बूँद पलक पर जमी रही
क़मर सिद्दीक़ी