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आँखों से वो कभी मिरी ओझल नहीं रहा | शाही शायरी
aankhon se wo kabhi meri ojhal nahin raha

ग़ज़ल

आँखों से वो कभी मिरी ओझल नहीं रहा

सअादत सईद

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आँखों से वो कभी मिरी ओझल नहीं रहा
ग़ाफ़िल मैं उस की याद से इक पल नहीं रहा

क्या है जो उस ने दूर बसा ली हैं बस्तियाँ
आख़िर मिरा दिमाग़ भी अव्वल नहीं रहा

लाओ तो सिर्र-ए-दहर के मफ़्हूम की ख़बर
उक़्दा अगरचे कोई भी मोहमल नहीं रहा

शायद न पा सकूँ मैं सुराग़-ए-दयार-ए-शौक़
क़िबला दुरुस्त करने का कस-बल नहीं रहा

दश्त-ए-फ़ना में देखा मुसावात का उरूज
अशरफ़ नहीं रहा कोई असफ़ल नहीं रहा

है जिस का तख़्त सज्दा-गह-ए-ख़ास-ओ-आम-ए-शहर
मैं उस से मिलने के लिए बे-कल नहीं रहा

जिस दम जहाँ से डोलती डोली ही उठ गई
तब्ल ओ अलम तो क्या कोई मंडल नहीं रहा