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आँखों में हैं हक़ीर जिस-तिस के | शाही शायरी
aankhon mein hain haqir jis-tis ke

ग़ज़ल

आँखों में हैं हक़ीर जिस-तिस के

मीर हसन

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आँखों में हैं हक़ीर जिस-तिस के
नज़रों से गिर गए हैं हम किस के

दिल का हमदम इलाज मत कर अब
ज़ख़्म मरहम-पज़ीर हैं इस के

कौन आता है ऐसा होश-रुबा
सब्र ओ ताक़त यहाँ से क्यूँ खिसके

देखती है ये किस की आँखों को
क्यूँ खुले हैं ये चश्म नर्गिस के

बस कहीं थक भी आसिया-ए-फ़लक
हो चुके सुर्मा हम तो अब पिस के

जी से रहते हैं अपने उस पे निसार
दिल से होते हैं दोस्त हम जिस के

गो नहीं अब कभी तो ऐ प्यारे
हम भी थे यार तेरी मज्लिस के

तू तो ख़ुश है कि तेरे कूचे में
एक तड़पा करे और इक सिसके

मर गए पर भी ये 'हसन' न मुँदे
मुंतज़िर चश्म थे तिरे किस के