आँखों में हैं हक़ीर जिस-तिस के
नज़रों से गिर गए हैं हम किस के
दिल का हमदम इलाज मत कर अब
ज़ख़्म मरहम-पज़ीर हैं इस के
कौन आता है ऐसा होश-रुबा
सब्र ओ ताक़त यहाँ से क्यूँ खिसके
देखती है ये किस की आँखों को
क्यूँ खुले हैं ये चश्म नर्गिस के
बस कहीं थक भी आसिया-ए-फ़लक
हो चुके सुर्मा हम तो अब पिस के
जी से रहते हैं अपने उस पे निसार
दिल से होते हैं दोस्त हम जिस के
गो नहीं अब कभी तो ऐ प्यारे
हम भी थे यार तेरी मज्लिस के
तू तो ख़ुश है कि तेरे कूचे में
एक तड़पा करे और इक सिसके
मर गए पर भी ये 'हसन' न मुँदे
मुंतज़िर चश्म थे तिरे किस के
ग़ज़ल
आँखों में हैं हक़ीर जिस-तिस के
मीर हसन