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आँखों को सूझता ही नहीं कुछ सिवा-ए-दोस्त | शाही शायरी
aankhon ko sujhta hi nahin kuchh siwa-e-dost

ग़ज़ल

आँखों को सूझता ही नहीं कुछ सिवा-ए-दोस्त

शरफ़ मुजद्दिदी

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आँखों को सूझता ही नहीं कुछ सिवा-ए-दोस्त
कानों में आ रही है बराबर सदा-ए-दोस्त

कैसी वफ़ा सितम से भी उस ने उठाए हाथ
रह रह के याद अब आती है तर्ज़-ए-जफ़ा-ए-दोस्त

सीने में दाग़-हा-ए-मोहब्बत की है बहार
फूला है ख़ूब ये चमन दिल-कुशा-ए-दोस्त

दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
हर जा है दोस्त और नहीं मिलती है जा-ए-दोस्त

मुद्दत से पाँव तोड़े हुए बैठे थे 'शरफ़'
आख़िर उड़ा के ले ही चली अब हवा-ए-दोस्त