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आँखों को नक़्श-ए-पा तिरा दिल को ग़ुबार कर दिया | शाही शायरी
aankhon ko naqsh-e-pa tera dil ko ghubar kar diya

ग़ज़ल

आँखों को नक़्श-ए-पा तिरा दिल को ग़ुबार कर दिया

आतिफ़ वहीद 'यासिर'

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आँखों को नक़्श-ए-पा तिरा दिल को ग़ुबार कर दिया
हम ने विदा-ए-यार को अपना हिसार कर दिया

इस की छुवन से जल उठा मेरे बदन का रोम रोम
मुझ को तो दस्त-ए-यार ने जैसे चिनार दिया

किस के बदन की नर्मियाँ हाथों को गुदगुदा गईं
दश्त-ए-फ़िराक़-ए-यार को पहलू-ए-यार कर दिया

अब के तो मुझ पे इस तरह साक़ी हुआ है मेहरबाँ
सारे दुखों को चूम कर मय का ख़ुमार कर दिया

माना सुख़न तिरी अता फिर भी कमाल है मिरा
मैं ने तिरे जमाल को रश्क-ए-बहार कर दिया

मुझ से गिला बजा मगर तुम भी कभी ये सोचना
मुझ को अना के रख़्श पर किस ने सवार कर दिया

ज़ुल्मत-ए-हिज्र में सदा उस ने दिया है हौसला
अब के मगर बुझा दिया उस ने भी हार कर दिया