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आँखों को मयस्सर कोई मंज़र ही नहीं था | शाही शायरी
aankhon ko mayassar koi manzar hi nahin tha

ग़ज़ल

आँखों को मयस्सर कोई मंज़र ही नहीं था

सुहैल अहमद ज़ैदी

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आँखों को मयस्सर कोई मंज़र ही नहीं था
सर मेरा गरेबान से बाहर ही नहीं था

बे-फ़ैज़ हवाएँ थीं न सफ़्फ़ाक था मौसम
सच ये है कि उस घर में कोई दर ही नहीं था

सर चैन से रक्खा न रुके पाँव के दिल में
इक बात भी पैवस्त थी ख़ंजर ही नहीं था

हम हार तो जाते ही कि दुश्मन के हमारे
सौ पैर थे सौ हाथ थे इक सर ही नहीं था

सहरा में वो सब कुछ था जो था शहर में अपने
इक नफ़ा ओ नुक़सान का दफ़्तर ही नहीं था

हाथों पे धरा सर को 'सुहैल' और चले हम
अब बाब कोई और मयस्सर ही नहीं था