आँखों को चमक चेहरे को इक आब तो दीजे
झूटा ही सही आप कोई ख़्वाब तो दीजे
हम संग-ए-गिराँ हैं ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं क्या हैं
मा'लूम हो पहले कोई सैलाब तो दीजे
हम जाम-ब-कफ़ बैठे रहें और कहाँ तक
तक़दीर में अमृत नहीं ज़हराब तो दीजे
हम को भी है ये शौक़ कि डूबें कभी उभरें
हो गर्दिश-ए-अय्याम का गिर्दाब तो दीजे
मदहोश न कर दें जो ज़माने को तो कहना
हाथों में हमारे कोई मिज़राब तो दीजे
मरने की हवस है हमें दीवाने हुए हैं
जीने के अगर पास हों आदाब तो दीजे
वीरानों को गुलशन ही बनाएँगे 'मतीन' हम
खिलने ज़रा इक ग़ुंचा-ए-शादाब तो दीजे
ग़ज़ल
आँखों को चमक चेहरे को इक आब तो दीजे
सय्यद फ़ज़लुल मतीन