आँखों को अश्क-बार किया है कभी कभी
यूँ तेरा इंतिज़ार किया है कभी कभी
महशर को दरकिनार किया है कभी कभी
तुझ पर जो ए'तिबार किया है कभी कभी
ख़ून-ए-जिगर से हम ने गुलों को निखार कर
गुलशन को पुर-बहार किया है कभी कभी
उस आस्ताना-ए-नाज़ से नफ़रत भी की मगर
सज्दा भी बार बार किया है कभी कभी
हम ने तुम्हारी याद के दाग़ों से भर के दिल
दिल-गश्ता-ए-बहार किया है कभी कभी
साक़ी ने दे के जाम किया हम को शादमाँ
वाइ'ज़ ने सोगवार किया है कभी कभी
मरग़ूब तेरी दी हुई दीवानगी का फ़ैज़
हस्ती को तार तार किया है कभी कभी

ग़ज़ल
आँखों को अश्क-बार किया है कभी कभी
मर्ग़ूब असर फ़ातमी