आँखें ज़मीन और फ़लक दस्तकार हैं 
पानी के जितने रूप हैं सब मुस्तआ'र हैं 
ख़ुद को अकेला जान के तन्हा न जानना 
ये आइने नहीं हैं तिरे पहरे-दार हैं 
मुश्किल की इस घड़ी में करूँ किस से मशवरा 
कुछ दोस्त हैं तो वो भी फ़साना-निगार हैं 
ये छाँव जैसी धूप हमारा मिज़ाज है 
हम लोग आफ़्ताब हैं और साया-दार हैं 
'आरिश' जो मेरे सर पे नहीं हो सके सवार 
वो सारे लोग मेरी कमर पर सवार हैं
        ग़ज़ल
आँखें ज़मीन और फ़लक दस्तकार हैं
सरफ़राज़ आरिश

