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आँखें खुली थीं सब की कोई देखता न था | शाही शायरी
aankhen khuli thin sab ki koi dekhta na tha

ग़ज़ल

आँखें खुली थीं सब की कोई देखता न था

सूफ़ी तबस्सुम

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आँखें खुली थीं सब की कोई देखता न था
अपने सिवा किसी का कोई आश्ना न था

यूँ खो गया था हुस्न हुजूम-ए-निगाह में
अहल-ए-नज़र को अपनी नज़र का पता न था

धुँदला गए थे नक़्श-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह
पहचानती थी आँख तो दिल मानता न था

तुम पास थे तुम्हें तो हुई होगी कुछ ख़बर
इतना तो अपना शीशा-ए-दिल बे-सदा न था

कुछ लोग थे जिन्हें ये सआदत हुई नसीब
वर्ना यहाँ किसे सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा न था

हर सम्त हो रहा था अँधेरों का अज़दहाम
शब कट चुकी थी और सवेरा हुआ न था

क्या क्या फ़राग़तें थीं 'तबस्सुम' हमें कि जब
दिल पर किसी की याद का साया पड़ा न था