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आँखें ग़म-ए-फ़िराक़ से हैं तर इधर-उधर | शाही शायरी
aankhen gham-e-firaq se hain tar idhar-udhar

ग़ज़ल

आँखें ग़म-ए-फ़िराक़ से हैं तर इधर-उधर

शमीम फ़तेहपुरी

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आँखें ग़म-ए-फ़िराक़ से हैं तर इधर-उधर
ग़म का असर है आज बराबर इधर-उधर

थे जो वफ़ा-शिआर वो नज़्र-ए-सितम हुए
अब किस को ढूँढता है सितमगर इधर-उधर

महफ़िल में तेरे हुस्न पे क़ुर्बान होगा कौन
दीवाने चल दिए जो निकल कर इधर-उधर

साक़ी के साथ रौनक़-ए-मय-ख़ाना भी गई
टूटे पड़े हैं शीशा-ओ-साग़र इधर-उधर

ऐसा न हो ज़माना हँसे तुम पर एक दिन
लिक्खो न मेरे हाल पे हँस कर इधर-उधर

दिल में कभी है दर्द जिगर में कभी ख़लिश
जैसे छुपे हों सीने में नश्तर इधर-उधर

अपनी ग़ज़ल सुनाओ 'शमीम' अहल-ए-ज़ौक़ को
ज़ाएअ' करो न फ़िक्र के जौहर इधर-उधर