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आँख तिश्ना भी नहीं होंट सवाली भी नहीं | शाही शायरी
aankh tishna bhi nahin honT sawali bhi nahin

ग़ज़ल

आँख तिश्ना भी नहीं होंट सवाली भी नहीं

मोहसिन एहसान

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आँख तिश्ना भी नहीं होंट सवाली भी नहीं
ये सुराही कि भरी भी नहीं ख़ाली भी नहीं

हम सख़ी दिरहम-ओ-दीनार लिए फिरते हैं
शहर-ए-नादार में अब कोई सवाली भी नहीं

क्यूँ गिराने के लिए दरपय आज़ार हैं लोग
हम ने बुनियाद मकाँ की अभी डाली भी नहीं

ऐसी मकरूह कहानी की ये तस्वीर है जो
सुनने वाली भी नहीं देखने वाली भी नहीं

'मोहसिन'-एहसाँ का है अंदाज़-ए-जुनूँ सब से अलग
ये जलाली भी नहीं है ये जमाली भी नहीं