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आँख से टूट कर गिरी थी नींद | शाही शायरी
aankh se TuT kar giri thi nind

ग़ज़ल

आँख से टूट कर गिरी थी नींद

साजिद हमीद

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आँख से टूट कर गिरी थी नींद
वो जो मदहोश हो चुकी थी नींद

मेरी आँखों के क्यूँ झरोके तक
आ के चुप-चाप सी खड़ी थी नींद

किस ने छेड़ा हवा के लहजे में
कैसी ख़ामोश सी पड़ी थी नींद

नीली आँखों की कर रहा था मैं
जब तिलावत तो जल गई थी नींद

कितनी पुर-लुत्फ़ थीं मिरी रातें
उन दिनों जब हरी-भरी थी नींद

चाँद मेरे सिरहाने बैठा था
और बग़ल में खड़ी हुई थी नींद

जब तलक मैं किवाड़ करता बंद
'साजिद' मुझ दूर जा चुकी थी नींद