आँख से हिज्र गिरा दिल ने दुहाई दी है
इश्क़ वालों की कहाँ चीख़ सुनाई दी है
रात की शाख़ हिली और गिरे पीले फूल
दर्द के पेड़ ने यूँ हम को कमाई दी है
शोर इतना कि सुनाई न दिया था कुछ भी
आँख खोली है तो आवाज़ दिखाई दी है
अब नए वस्ल की सूरत है निकलने वाली
हिज्र ने मेरे तजस्सुस को रसाई दी है
दिन की परछाईं में इक अक्स लरज़ता देखा
शाम ढलते ही वही शक्ल दिखाई दी है
ग़ज़ल
आँख से हिज्र गिरा दिल ने दुहाई दी है
वक़ास अज़ीज़