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आँख पड़ती है कहीं पाँव कहीं पड़ता है | शाही शायरी
aankh paDti hai kahin panw kahin paDta hai

ग़ज़ल

आँख पड़ती है कहीं पाँव कहीं पड़ता है

मोहम्मद अली तिशना

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आँख पड़ती है कहीं पाँव कहीं पड़ता है
सब की है तुम को ख़बर अपनी ख़बर कुछ भी नहीं

शम्अ है गुल भी है बुलबुल भी है परवाना भी
रात की रात ये सब कुछ है सहर कुछ भी नहीं

हश्र की धूम है सब कहते हैं यूँ है यूँ है
फ़ित्ना है इक तिरी ठोकर का मगर कुछ भी नहीं

नीस्ती की है मुझे कूचा-ए-हस्ती में तलाश
सैर करता हूँ उधर की कि जिधर कुछ भी नहीं

ला-मकाँ में भी तो इक जल्वा नज़र आता है
बे-कसी में तो उधर हूँ कि जिधर कुछ भी नहीं

एक आँसू भी असर जब न करे ऐ 'तिश्ना'
फ़ाएदा रोने से अब दीदा-ए-तर कुछ भी नहीं