आँख लग जाती है फिर भी जागता रहता हूँ मैं
नींद के आलम में क्या क्या सोचता रहता हूँ मैं
तैरती रहती हैं मेरे ख़ूँ में ग़म की किर्चियाँ
काँच की सूरत बदन में टूटता रहता हूँ मैं
साँप के मानिंद क्यूँ डसती है बाहर की फ़ज़ा
क्यूँ हिसार-ए-जिस्म में महबूस सा रहता हूँ मैं
फेंकता रहता है पत्थर कौन दिल की झील में
दायरा-दर-दायरा क्यूँ फैलता रहता हूँ मैं
टहनियाँ कट कट के उग आती हैं फिर से दर्द की
इक सनोबर कर्ब का बन कर हरा रहता हूँ मैं
इस से बढ़ कर और क्या होती परेशानी मुझे
ये सितम कम है कि ख़ुद से भी जुदा रहता हूँ मैं

ग़ज़ल
आँख लग जाती है फिर भी जागता रहता हूँ मैं
सूरज नारायण