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आँख की ज़िद को हमेशा ही से बहलाया गया | शाही शायरी
aankh ki zid ko hamesha hi se bahlaya gaya

ग़ज़ल

आँख की ज़िद को हमेशा ही से बहलाया गया

ख़ालिद शिराज़ी

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आँख की ज़िद को हमेशा ही से बहलाया गया
एक चेहरे को कई चेहरों में दिखलाया गया

मेरे पाँव नित नए रस्तों से थे कब आश्ना
सदियों पहले था जहाँ मुझ को वहीं पाया गया

फिर हुई बेदार ख़्वाहिश आँख में आई चमक
फिर किसी को धूप सा मल्बूस पहनाया गया

सुनने वालों ने तो देखा भी नहीं था चौंक कर
राज़ सीने से निकल के होंट पर आया गया

इस क़दर था संग-दिल जैसे किसी क़ातिल का दिल
मुझ से वो माहौल ऐ 'ख़ालिद' न अपनाया गया