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आँख के कुंज में इक दश्त-ए-तमन्ना ले कर | शाही शायरी
aankh ke kunj mein ek dasht-e-tamanna le kar

ग़ज़ल

आँख के कुंज में इक दश्त-ए-तमन्ना ले कर

सलीम बेताब

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आँख के कुंज में इक दश्त-ए-तमन्ना ले कर
अजनबी देस को निकले दिल-ए-तन्हा ले कर

देख तो खोल के तारीक मकाँ की खिड़की
हम तिरे शहर में आए हैं उजाला ले कर

हम भी पहुँचे थे गुलिस्ताँ में सुकूँ की ख़ातिर
आ गए ज़ेहन में तपता हुआ सहरा ले कर

अब निगाहों की जराहत को लिए सोचते हैं
क्यूँ गए बज़्म में हम ज़ौक़-ए-तमाशा ले कर

कब से फ़रियाद-ब-लब आब-तलब है शीरीं
आज फ़रहाद भी निकला नहीं तेशा ले कर

रू-सियह तेरे बने चश्म-ओ-चराग़ ज़िंदाँ
घूम अब शहर में तू चेहरा-ए-ज़ेबा ले कर

इस चका-चौंद में अब मुझ को दिखाई क्या दे
आ गए आप तो इक नूर का दरिया ले कर

जब भी हालात के शो'लों में घिरा हूँ 'बेताब'
आ ही पहुँचा है कोई फूल सा चेहरा ले कर