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आने में झिझक मिलने में हया तुम और कहीं हम और कहीं | शाही शायरी
aane mein jhijhak milne mein haya tum aur kahin hum aur kahin

ग़ज़ल

आने में झिझक मिलने में हया तुम और कहीं हम और कहीं

आरज़ू लखनवी

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आने में झिझक मिलने में हया तुम और कहीं हम और कहीं
अब अहद-ए-वफ़ा टूटा कि रहा तुम और कहीं हम और कहीं

बे-आप ख़ुशी से एक इधर कुछ खोया हुआ सा एक उधर
ज़ाहिर में बहम बातिन में जुदा तुम और कहीं हम और कहीं

आए तो ख़ुशामद से आए बैठे तो मुरव्वत से बैठे
मिलना ही ये क्या जब दिल न मिला तुम और कहीं हम और कहीं

वअ'दा भी किया तो की न वफ़ा आता है तुम्हें चर्कों में मज़ा
छोड़ो भी ये ज़िद लुत्फ़ इस में है क्या तुम और कहीं हम और कहीं

बरगश्ता-नसीब का यूँ होना सोना भी तो इक करवट सोना
कब तक ये जुदाई का रोना तुम और कहीं हम और कहीं

दिल मिलने पे भी पहलू न मिला दुश्मन तो बग़ल ही में है छुपा
क़ातिल है मोहब्बत की ये हया तुम और कहीं हम और कहीं

यकसूई-ए-दिल मर्ग़ूब हमें बर्बादी-ए-दिल मतलूब तुम्हें
इस ज़िद का है और अंजाम ही क्या तुम और कहीं हम और कहीं

दिल से है अगर क़ाएम रिश्ता तो दूर-ओ-क़रीब की बहस ही क्या
है ये भी निगाहों का धोका तुम और कहीं हम और कहीं

सुन रक्खो क़ब्ल-ए-अहद-ए-वफ़ा क़ौल आरज़ू-ए-शैदाई का
जन्नत भी है दोज़ख़ गर ये हुआ तुम और कहीं हम और कहीं