आने दो अपने पास मुझ को
करना है कुछ इल्तिमास मुझ को
तेरे ये जौर कब सहूँ मैं
गर इश्क़ का हो न पास मुझ को
दो तिफ़्ल-मिज़ाज शीशा-दिल में
किस तरह न हो हिरास मुझ को
लगता है न घर में दिल न बाहर
किस ने ये किया उदास मुझ को
क्या हाल कहूँ कि देख उस को
रहते ही नहीं हवास मुझ को
ऐ निकहत-ए-गुल परी ही रह तू
आना है उसी के पास मुझ को
मुँह फेरा भी न उस तरफ़ से
टुक होने दे रू-शनास मुझ को
उठ जाऊँगा एक दिन ख़फ़ा हो
यहाँ तक न करो उदास मुझ को
गर हैं यही जौर उस के 'बेदार'
बचने की नहीं है आस मुझ को
ग़ज़ल
आने दो अपने पास मुझ को
मीर मोहम्मदी बेदार