आँधियाँ चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे
अपना परचम हम भी तूफ़ानों में लहराते रहे
काट कर रातों के पर्बत अस्र-ए-नौ के तेशा-ज़न
जू-ए-शीर-ओ-चश्मा-ए-नूर-ए-सहर लाते रहे
कारवान-ए-हिम्मत-ए-जम्हूर बढ़ता ही गया
शहरयार-ओ-हुक्मराँ आते रहे जाते रहे
रहबरों की भूल थी या रहबरी का मुद्दआ'
क़ाफ़िलों को मंज़िलों के पास भटकाते रहे
जिस क़दर बढ़ता गया ज़ालिम हवाओं का ख़रोश
उस के काकुल और भी आरिज़ पे लहराते रहे
फाँसियाँ उगती रहीं ज़िंदाँ उभरते ही रहे
चंद दीवाने जुनूँ के ज़मज़मे गाते रहे
ग़ज़ल
आँधियाँ चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे
अली सरदार जाफ़री