आँधी चली तो गर्द से हर चीज़ अट गई
दीवार से लगी तिरी तस्वीर फट गई
लम्हों की तेज़ दौड़ में मैं भी शरीक था
मैं थक के रुक गया तो मिरी उम्र घट गई
इस ज़िंदगी की जंग में हर इक महाज़ पर
मेरे मुक़ाबले में मिरी ज़ात डट गई
सूरज की बर्छियों से मिरा जिस्म छिद गया
ज़ख़्मों की सूलियों पे मिरी रात कट गई
एहसास की किरन से लहू गर्म हो गया
सोचों के दाएरों में तिरी याद बट गई
ग़ज़ल
आँधी चली तो गर्द से हर चीज़ अट गई
सिब्त अली सबा