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आमूख़्ते का जाल ज़बाँ से लिपट गया | शाही शायरी
aamuKHte ka jal zaban se lipaT gaya

ग़ज़ल

आमूख़्ते का जाल ज़बाँ से लिपट गया

मेहदी जाफ़र

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आमूख़्ते का जाल ज़बाँ से लिपट गया
बदली हवा तो हर्फ़ का पाँसा पलट गया

मुझ से निकल के हैबत-ए-शब का था सामना
साया वुफ़ूर-ए-ख़ौफ़ से पल्टा चिमट गया

सद तल्ख़ियों की शाख़ पे बैठी थी मौज-ए-नीम
बरगद से आ के झोंका हवा का पलट गया

थी शहर-ए-इंहिसार में फिसलन गली गली
मैं लड़खड़ा गया मिरा ख़च्चर रपट गया

तारीक बे-कनार समुंदर पड़ा रहा
मंज़र तमाम ग़ार के अंदर सिमट गया