आलम उस बुत पे मुब्तला ही रहा
उन में फ़िदवी भी इक फ़िदा ही रहा
उठ गई दोस्ती ज़माने से
आश्नाई न आश्ना ही रहा
न सुनी तू ने एक बात कभू
हम को इस बात का गिला ही रहा
तुम ख़फ़ा ही रहे 'तसल्ली' से
और वो तुम पे नित फ़िदा ही रहा
ग़ज़ल
आलम उस बुत पे मुब्तला ही रहा
लाला टीका राम