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आख़िरी उम्मीद भी आँखों से छलकाए हुए | शाही शायरी
aaKHiri ummid bhi aankhon se chhalkae hue

ग़ज़ल

आख़िरी उम्मीद भी आँखों से छलकाए हुए

अजीत सिंह हसरत

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आख़िरी उम्मीद भी आँखों से छलकाए हुए
कौन सी जानिब चले हैं तेरे ठुकराए हुए

अपनी गलियाँ अपनी बस्ती भूल बैठा है वो चाँद
एक युग गुज़रा है उस को नूर बरसाए हुए

जुस्तुजू वाले तुम्हारी राह में मर मिट गए
एक मुद्दत से तुम्हें परदेस हैं भाए हुए

ऐ बहार-ए-ज़िंदगी अब देर है किस बात की
बासी फूलों की तरह हैं बख़्त मुरझाए हुए

दूर जा निकला कहीं सूरज हमारे शहर का
रात भागी आ रही है शाम के साए हुए

बुत बना बैठा रहा 'हसरत' हुज़ूर-ए-हुस्न में
कह गए अपनी ज़बाँ में अश्क थर्राए हुए