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आख़िरी गाड़ी गुज़रने की सदा भी आ गई | शाही शायरी
aaKHiri gaDi guzarne ki sada bhi aa gai

ग़ज़ल

आख़िरी गाड़ी गुज़रने की सदा भी आ गई

नश्तर ख़ानक़ाही

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आख़िरी गाड़ी गुज़रने की सदा भी आ गई
सो रहो बे-ख़्वाब आँखो! रात आधी आ गई

ज़िंदगी से सीख लीं हम ने भी दुनिया-दारियाँ
रफ़्ता रफ़्ता तुम में भी मौक़ा-परस्ती आ गई

सादा-लौही देन जो क़स्बे की थी रुख़्सत हुई
शहर आना था कि इस में होशियारी आ गई

हम मिले थे जाने क्या आफ़त-ज़दा रूहें लिए
गुफ़्तुगू औरों की थी आपस में तल्ख़ी आ गई

अपने ही गाँव की सरहद पर पहुँच कर आज हम
पूछते हैं हम-सफ़र! ये कौन बस्ती आ गई

अब न ज़ौक़-ए-रह-नवर्दी है न लुत्फ़-ए-माँदगी
ऐसा लगता है कि मंज़िल पर सवारी आ गई

तर्क क्यूँ करते नहीं हो कारोबार-ए-आरज़ू
'ख़ानक़ाही' अब तो बालों में सफ़ेदी आ गई