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आख़िर तुम्हारे इश्क़ में बर्बाद हो सके | शाही शायरी
aaKHir tumhaare ishq mein barbaad ho sake

ग़ज़ल

आख़िर तुम्हारे इश्क़ में बर्बाद हो सके

शहज़ाद रज़ा लम्स

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आख़िर तुम्हारे इश्क़ में बर्बाद हो सके
गुज़रे कहाँ कहाँ से तो शहज़ाद हो सके

बस्ती को अपनी छोड़ के आया है इक फ़क़ीर
ख़्वाहिश कि तेरे जिस्म में आबाद हो सके

मुद्दत से अपनी याद भी आती नहीं हमें
तुम जिस को याद हो उसे क्या याद हो सके

होंटों पे होंट रख दे कि मैं राख हो सकूँ
मेरी नए सिरे से फिर ईजाद हो सके

पर फड़फड़ा रहा है परिंदा बदन में क़ैद
इस पिंजरे को खोल कि आज़ाद हो सके

फ़हरिस्त ले के आए हैं आशिक़ तिरे सभी
ऐ काश मेरे नाम पे ही साद हो सके