आख़िर सुख़न तमाम किया इस दुआ के साथ
रहना गुलों के बीच महकना हवा के साथ
इक बे-कनार हिज्र मिरी रूह में मुक़ीम
इक बे-पनाह ख़ौफ़ मिरी इल्तिजा के साथ
इक बे-यक़ीन रात मिरी रात की शरीक
इक बे-दयार शाम दिल-ए-ना-रसा के साथ
इक बर्ग-ए-ख़ुश्क शाख़ से गिरने का मुंतज़िर
और मेरा जिस्म काँप रहा है हवा के साथ
सहरा में खींचती है मुझे ख़्वाहिश-ए-क़रार
सहरा को खींचता हूँ मैं ज़ंजीर-ए-पा के साथ
आँखों में मेरी रंग के दरिया उतार कर
चेहरे को उस ने फेर लिया किस अदा के साथ
दिल की गिरह-कुशाई फ़क़त शर्त है 'रज़ी'
खुल जाएगा वो जिस्म तो बंद-ए-क़बा के साथ
ग़ज़ल
आख़िर सुख़न तमाम किया इस दुआ के साथ
ख़्वाज़ा रज़ी हैदर