आख़िर ग़म-ए-जानाँ को ऐ दिल बढ़ कर ग़म-ए-दौराँ होना था
इस क़तरे को बनना था दरिया इस मौज को तूफ़ाँ होना था
हर मोड़ पे मिल जाते हैं अभी फ़िरदौस-ओ-जिनाँ के शैदाई
तुझ को तो अभी कुछ और हसीं ऐ आलम-ए-इम्काँ होना था
वो जिस के गुदाज़-ए-मेहनत से पुर-नूर शबिस्ताँ है तेरा
ऐ शोख़ उसी बाज़ू पे तिरी ज़ुल्फ़ों को परेशाँ होना था
आती ही रही है गुलशन में अब के भी बहार आई है तो क्या
है यूँ कि क़फ़स के गोशों से एलान-ए-बहाराँ होना था
आया है हमारे मुल्क में भी इक दौर-ए-ज़ुलेख़ाई यानी
अब वो ग़म-ए-ज़िंदाँन देते हैं जिन को ग़म-ए-ज़िंदाँ होना था
अब खुल के कहूँगा हर ग़म-ए-दिल 'मजरूह' नहीं वो वक़्त कि जब
अश्कों में सुनाना था मुझ को आहों में ग़ज़ल-ख़्वाँ होना था
ग़ज़ल
आख़िर ग़म-ए-जानाँ को ऐ दिल बढ़ कर ग़म-ए-दौराँ होना था
मजरूह सुल्तानपुरी