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आख़िर-ए-शब भी किसी ख़्वाब की उम्मीद में हूँ | शाही शायरी
aaKHir-e-shab bhi kisi KHwab ki ummid mein hun

ग़ज़ल

आख़िर-ए-शब भी किसी ख़्वाब की उम्मीद में हूँ

इसहाक़ अतहर सिद्दीक़ी

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आख़िर-ए-शब भी किसी ख़्वाब की उम्मीद में हूँ
इक नई सुब्ह नए दिन नए ख़ुर्शीद में हूँ

मुझ से वो कैसे करे हर्फ़-ओ-हिकायत आग़ाज़
मैं अभी सिलसिला-ए-हर्फ़ की तम्हीद में हूँ

मुझ में भी फ़क़्र की हल्की सी झलक मिलती है
है मुझे फ़ख़्र कि इक सूरत-ए-तक़लीद में हूँ

मैं ने देखा है उसे या नहीं देखा उस को
मैं अभी तक तो उसी कश्मकश-ए-दीद में हूँ

मेरी हर साँस है इस्बात-ओ-नफ़ी की तकरार
मुझ को क्या इल्म कि कब हालत-ए-तरदीद में हूँ

सर-कशीदा हूँ तो क्या मद्द-ए-मुक़ाबिल हूँ तो क्या
मेरे क़ातिल मैं तिरी तेग़ की ताईद में हूँ

ख़ुश्क शाख़ों में अभी ज़ौक़-ए-नुमू बाक़ी है
मैं नई रुत से फिर इक अहद की तज्दीद में हूँ