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आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला | शाही शायरी
aaKHir-e-kar yahi uzr jafa ka nikla

ग़ज़ल

आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला

असर लखनवी

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आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला
जुर्म और जुर्म भी इक उम्र-ए-वफ़ा का निकला

ओस में डूब के जिस तरह निखरता है गुलाब
शर्म से और सिवा हुस्न अदा का निकला

क्या करी है कि जब दर पे तिरे आ बैठा
आस्तीं से न कभी हाथ गदा का निकला

जो दुआ माँगी है औरों ही की ख़ातिर माँगी
हौसला आज मिरे दस्त-ए-दुआ का निकला

शौक़-ए-मंज़िल ही लिए उठ गए जाने वाले
आश्ना एक न आवाज़-ए-दरा का निकला

जब तू ही तू है तो फिर ग़ैब ओ हुज़ूरी कैसी
एक ही रंग बक़ा और फ़ना का निकला