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आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया | शाही शायरी
aaKHir charagh-e-dard-e-mohabbat bujha diya

ग़ज़ल

आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया

फ़ुज़ैल जाफ़री

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आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया
सर से किसी की याद का पत्थर गिरा दिया

ढूँडे जनम जनम भी तो दुनिया न पा सके
यूँ हम ने उस को अपनी ग़ज़ल में छुपा दिया

ख़ुश्बू से उस की जिस्म की आँगन महक उठा
कमरे को उस ने अपनी हँसी से सजा दिया

ये किस के इंतिज़ार में झपकी नहीं पलक
ये किस ने मुझ को राह का पत्थर बना दिया

क्या कम है 'जाफ़री' कि मशीनों के शोर ने
लोगों को अपने आप से मिलना सिखा दिया