आख़िर बिगड़ गए मिरे सब काम होने तक
इक उम्र लग गई मुझे नाकाम होने तक
दिलकश दिखाई देते हैं जो लोग सुब्ह-दम
उन पर नज़र न डालोगे तुम शाम होने तक
जिस इश्क़ को छुपाने में इक उम्र लग गई
इक पल लगा है उस को सर-ए-आम होने तक
क़ीमत मिरी ज़रा सी मोहब्बत थी दोस्तो
पर मुद्दतें लगीं मुझे नीलाम होने तक
दुनिया ने 'ज़ेब' मुझ को कहीं का नहीं रखा
लेकिन मैं चुप हूँ ज़ात में कोहराम होने तक
ग़ज़ल
आख़िर बिगड़ गए मिरे सब काम होने तक
औरंगज़ेब