आजिज़ था बे-इज्ज़ निभाई रस्म-ए-जुदाई मैं ने भी
उस ने मुझ से हाथ छुड़ाया जान छुड़ाई मैं ने भी
जंगल के जल जाने का अफ़्सोस है लेकिन क्या करना
उस ने मेरे पर गिराए आग लगाई मैं ने भी
उस ने अपने बिखरे घर को फिर से समेटा ठीक किया
अपने बाम-ओ-दर पे बैठी गर्द उड़ाई मैं ने भी
नौहा-गरान-ए-यार में यारों मेरा नाम भी लिख देना
उस के साथ बहुत दिन की है नग़्मा-सराई मैं ने भी
एक दिया तो मरक़द पर भी जलता है 'आसिम' आख़िर
दुनिया आस पे क़ाएम थी सो आस लगाई मैं ने भी
ग़ज़ल
आजिज़ था बे-इज्ज़ निभाई रस्म-ए-जुदाई मैं ने भी
लियाक़त अली आसिम