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आज तक बहका नहीं बाहर से दीवाना तिरा | शाही शायरी
aaj tak bahka nahin bahar se diwana tera

ग़ज़ल

आज तक बहका नहीं बाहर से दीवाना तिरा

लुत्फ़ुर्रहमान

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आज तक बहका नहीं बाहर से दीवाना तिरा
हौसले मेरी निगाहों के हैं पैमाना तिरा

रात भर शबनम की आँखों से सहर की माँग में
मैं जिसे लिखता रहा वो भी था अफ़्साना तिरा

ये तिरे दरिया सलामत ये तिरे बादल ब-ख़ैर
लुट रहे हैं ख़ुम पे ख़ुम साबित है मय-ख़ाना तिरा

आँसुओं की आब-ए-जू हाइल है वर्ना लाऊँ मैं
मेरी नज़रों का शरर आँखों का ख़स-ख़ाना तिरा

दिल में धड़कन की तरह साँसों में ख़ुशबू की तरह
अब ख़यालों में भी कब आता है वो आना तिरा

अव्वल अव्वल तो तमाज़त दोपहर के दश्त की
आख़िर आख़िर अपनी नज़रों को झुका जाना तिरा

रेज़ा रेज़ा कर गई पत्थर को भी शबनम की चोट
हाए किस दिल से मगर वो मुझ को समझाना तिरा