आज रुस्वा हैं तो हम कूचा-ओ-बाज़ार बहुत
या कभी गीत भी गाते थे सर-ए-दार बहुत
अपने हालात को सुलझाओ तो कुछ बात बने
मिल भी जाएँगे कभी गेसू-ए-ख़मदार बहुत
दिल के ज़ख़्मों को भी मुमकिन हो तो देखो वर्ना
चाँद से चेहरे बहुत फूल से रुख़्सार बहुत
आज माहौल में फ़ित्ने हैं सर-ए-दैर-ओ-हरम
आज बेहतर है परस्तिश को दर-ए-यार बहुत
लुट गए एक ही अंगड़ाई में ऐसा भी हुआ
उम्र-भर फिरते रहे बन के जो होशियार बहुत
अजनबी बन के रहे शहर में हम हालाँकि
साया-ए-ज़ुल्फ़ बहुत साया-ए-दीवार बहुत
'क़ैस' ना-क़द्री-ए-अहबाब का शिकवा है फ़ुज़ूल
कोई यूसुफ़ ही नहीं वर्ना ख़रीदार बहुत
ग़ज़ल
आज रुस्वा हैं तो हम कूचा-ओ-बाज़ार बहुत
क़ैस रामपुरी