आज महसूर हैं दीमक-ज़दा दीवारों में
हम भी शामिल थे कभी शहर के मेमारों में
आख़िरश हाथ जला ही लिए अपने हम ने
जाने क्यूँ फूल नज़र आते थे अँगारों में
ये किसी से न कहा लाल-ओ-जवाहर थे हम
पत्थरों की तरह बिकते रहे बाज़ारों में
देर तक दस्तकें देती रही क़िस्मत दर पर
और हम उलझे रहे अपने ही पिंदारों में
ज़िंदगी तेरे अदाकार थे कैसे हम भी
सामने आते रहे हैं कई किरदारों में
वक़्त है कर लो मरम्मत अभी घर की 'बेताब'
अभी रौज़न नहीं ज़ाहिर हुए दीवारों में

ग़ज़ल
आज महसूर हैं दीमक-ज़दा दीवारों में
प्रीतपाल सिंह बेताब