आज-कल के शबाब देखे हैं
सारे ख़ाना-ख़राब देखे हैं
फूल जैसे हुसैन चेहरे भी
हाए सहते अज़ाब देखे हैं
इश्क़ की राह में वो लुटते हुए
हम ने लाखों जनाब देखे हैं
है ये उल्फ़त भी क्या बला साहब
इस में झुकते नवाब देखे हैं
एक इक पल को याद रखते थे
वो तुम्हारे हिसाब देखे हैं
तुम हटा दो ये अपने चेहरे से
हम ने काफ़ी नक़ाब देखे हैं
पहले मोहसिन थे फिर बने ज़ालिम
लोग ऐसे इ'ताब देखे हैं
जिस पे महताब तुम रहे मरते
अब वो होते सराब देखे हैं

ग़ज़ल
आज-कल के शबाब देखे हैं
बशीर महताब