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आज जलती हुई हर शम्अ बुझा दी जाए | शाही शायरी
aaj jalti hui har shama bujha di jae

ग़ज़ल

आज जलती हुई हर शम्अ बुझा दी जाए

अली अहमद जलीली

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आज जलती हुई हर शम्अ बुझा दी जाए
ग़म की तौक़ीर ज़रा और बढ़ा दी जाए

क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने
जब सँवर जाए चमन आग लगा दी जाए

अक़्ल का हुक्म कि साहिल से लगा दो कश्ती
दिल का इसरार कि तूफ़ाँ से लड़ा दी जाए

दूर तक दिल में दिखाई नहीं देता कोई
ऐसे वीराने में अब किस को सदा दी जाए

तब्सिरा ब'अद में भी क़त्ल पे हो सकता है
पहले ये लाश तो रस्ते से हटा दी जाए

मस्लहत अब तो इसी में नज़र आती है 'अली'
कि हँसी आए तो अश्कों में बहा दी जाए