आज भी तेरी ही सूरत है मुक़ाबिल मेरे
ये भी इक इश्क़ का अंदाज़ है क़ातिल मेरे
तेरा महरूम-ए-मोहब्बत हूँ सो वापस न गया
बे-मोहब्बत कभी दर से कोई साइल मेरे
हुस्न-ए-बीमार तुझे फूल दिए हैं मैं ने
इन में होने थे मगर ज़ख़्म भी शामिल मेरे
और मैं हूँ कि सफ़र फिर भी किए जाता हूँ
साए की तरह तआक़ुब में है मंज़िल मेरे
मैं समुंदर के तलातुम से भी कुछ सीखता हूँ
इसी तक़्सीर पे दुश्मन हुए साहिल मेरे
आज आराइशी ज़ंजीर है गर्दन में 'कमाल'
कभी हथियार गले में थे हमाइल मेरे
ग़ज़ल
आज भी तेरी ही सूरत है मुक़ाबिल मेरे
हसन अकबर कमाल