आज भी हाथ पे है तेरे पसीने की तरी
या'नी है आज भी शाख़-ए-शजर-ए-दर्द हरी
पास-ए-दामाँ न सही पास-ए-गरेबाँ ही सही
तुझ पे लाज़िम नहीं ऐ दस्त-ए-जुनूँ जामा-दरी
मैं कि दुनिया-ए-हवस में भी सर-अफ़राज़ रहा
काम आ ही गई आख़िर मिरी आशुफ़्ता-सरी
दिल की बस्ती से कभी यूँ न गुज़रती थी सबा
अब न पैग़ाम्बरी है न कोई नामा-बरी
हम ने भी छोड़ दिया मसलक-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा
वो भी अब भूल गए शेवा-ए-बेदाद-गरी
रात का कर्ब समेटे हुए अपने दिल में
झिलमिलाता है कहीं दूर चराग़-ए-सहरी
मैं ने किस दिल से शब-ए-ग़म की सहर की है 'अरीब'
याद आएगी ज़माने को मिरी बे-जिगरी
ग़ज़ल
आज भी हाथ पे है तेरे पसीने की तरी
सुलैमान अरीब