आइना तोड़ दे रिहा कर दे
बेवफ़ा इक यही वफ़ा कर दे
रिश्ता-ए-दर्द तोड़ दे दिल से
रंग को फूल से जुदा कर दे
ज़िंदगी-भर तुझी को चाहा है
क़र्ज़ कुछ तो मिरा अदा कर दे
दे रहा है ज़कात-ए-हुस्न अगर
मिरे हक़ से ज़रा बढ़ा कर दे
मुद्दतें हो गईं तुझे देखे
अब तो मिलने का सिलसिला कर दे
फिर कोई गुल खिले सर-ए-मिज़्गाँ
फिर दर-ए-ख़्वाब कोई वा कर दे
इक सितारे को बख़्श कर मिरे ख़्वाब
फिर उसे मेरा आइना कर दे
बैठता जा रहा है जाँ का ग़ुबार
अब उसे मुझ से मावरा कर दे
ऐ फ़क़ीर-ए-दयार-ए-लैली-जाँ
मिरे हक़ में भी कुछ दुआ कर दे
ग़ज़ल
आइना तोड़ दे रिहा कर दे
अय्यूब ख़ावर