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आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला | शाही शायरी
aaina-KHana bhi andoh-e-tamanna nikla

ग़ज़ल

आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला

आलमताब तिश्ना

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आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
ग़ौर से देखा तो अपना ही तमाशा निकला

ज़िंदगी महफ़िल-ए-शब की थी पस-अंदाज़-ए-शराब
पीने बैठे तो बस इक घूँट ज़रा सा निकला

फिर चला मौसम-ए-वहशत में सर-ए-मक़्तल-ए-इश्क़
क़ुरआ-ए-फ़ाल मिरे नाम दोबारा निकला

दाद-ए-शाइस्तगी-ए-ग़म की तवक़्क़ो' बे-सूद
दिल भी कम-बख़्त तरफ़-दार उसी का निकला

है अजब तर्ज़ का रहरव दिल-ए-शोरीदा-क़दम
जब भी निकला सफ़र-ए-इश्क़ पे तन्हा निकला

वो रक़ीबों का पता पूछने आए मिरे घर
कोई तो उन से मुलाक़ात का रस्ता निकला

दर-ब-दर ख़्वार हुए फिरते हैं हम हिज्र-नसीब
जाँ-सिपारी का भी क्या ख़ूब नतीजा निकला

दिल में उठते रहे यादों के बगूले 'तिश्ना'
मुझ में सिमटा हुआ इक दर्द का सहरा निकला