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आइना देखूँ मगर क्या देखूँ | शाही शायरी
aaina dekhun magar kya dekhun

ग़ज़ल

आइना देखूँ मगर क्या देखूँ

शर्मा तासीर

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आइना देखूँ मगर क्या देखूँ
ख़ुद को हाथों से फिसलता देखूँ

मंज़िल-ए-शौक़ कहीं और नहीं
डूब जाऊँ तो किनारा देखूँ

कोई क़ातिल ही कहीं मिल जाए
एक इंसान तो ज़िंदा देखूँ

वो जो आया है तो क्या आया है
सामने और ही चेहरा देखूँ

ख़ुल्द को इस लिए छोड़ आया था
ये तमन्ना थी कि दुनिया देखूँ

आज फिर दिल में वही ख़्वाहिश है
या'नी कुछ उस से निराला देखूँ

और चारा नहीं 'तासीर' कोई
जो दिखाए ये ज़माना देखूँ