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आईना देख कर न तो शीशे को देख कर | शाही शायरी
aaina dekh kar na to shishe ko dekh kar

ग़ज़ल

आईना देख कर न तो शीशे को देख कर

अम्बर वसीम इलाहाबादी

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आईना देख कर न तो शीशे को देख कर
हैरान दिल है आप के चेहरे को देख कर

ये वाक़िआ भी ख़ूब सर-ए-रह-गुज़र हुआ
पत्थर ने मुँह छपा लिए शीशे को देख कर

बाज़ार से गुज़रते हुए लग रहा है डर
बच्चा मचल न जाए खिलौने को देख कर

जुगनू की कोशिशों से सहर कैसे हो गई
हैरान हैं अँधेरे उजाले को देख कर

सच बोलने का हौसला कुछ और बढ़ गया
'अम्बर' फ़राज़-ए-दार पे सच्चे को देख कर